मेरे भारत देश के लोगो तुम्हे क्या हो गया |
'तुम्हे' इसलिए बोल रहा हूँ की वो पाशविक लोग भी हम में से ही होते है जो ऐसे बुरी मानसिकता वाले काम करते है | तुम क्यों अपनी संस्कृति को भूल रहे हो, जिसके दम पर हम ये बोल पाते है-
"जहां डाल डाल पर, सोने की चिडिय़ां करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा । जहां सत्य अहिंसा और धर्म का, पग-पग लगता डेरा, वो भारत देश है मेरा।"
हमने बचपन से जिस प्रतिज्ञा को सीखा है, क्यों उसको अमल में नही ला रहे |
"भारत मेरा देश है।
सब भारतवासी मेरे भाई-बहन हैँ।
मैँ अपने देश से प्रेम करता हूँ।
इसकी समृद्ध एवं विविध संस्कृति पर मुझे गर्व है।
मैँ सदा इसका सुयोग्य अधिकारी बनने का प्रयत्न करता रहूगाँ।
मैँ अपने माता-पिता, शिक्षकोँ एवं गुरुजनोँ का सम्मान करुगाँ और प्रत्येक के साथ विनीत रहूगाँ।
मैँ अपने देश और देशवासियोँ के प्रति सत्यनिष्ठा की प्रतिज्ञा करता हूँ।
इनके कल्याण एवं समृद्धि मेँ ही मेरा सुख निहित है।" (साभार: विकिपडिया.ओआरजी)
हमारी प्रतिज्ञा का एक-एक शब्द हमे मनुष्यता के मायने सीखता है . पर दुःख! दुःख इस बात का की इसको कभी समझने की चेष्टा ही नही की. उन कापुरुषों ने भी इस को पढ़ा होगा, सीखा होगा पर अमल में नही लाये , उसका परिणाम हमारे सामने है. उन जैसे दूषित सोच वाले लोग किसी कंस या रावन से कम नहीं है. कंस या रावन पाशविकता की वो चरम सीमा है, जन्हा पर उनको प्रायश्चित करने का समय नही दिया सकता | फिर क्यों न तुम उनका अंत कर दो, जितना जल्दी हो सके |
हालाँकि हम उसको नही बचा सके | पर उसकी जिजीविषा (जीने की लालसा) ने हमे बहुत कुछ सिखाया है | वो इसलिए जीना चाहती थी की, अपने इस दुःख को साथ में रखते हुए भी अपने परिवार की सेवा कर सके. उसको पल पोस कर जिसने बड़ा किया है, उन्हें संभल सके. उसकी ये सोच हमे अपने परिवार, सामाज, देश के प्रति दायित्व का अहसास करवाती है. दूसरी और वो नाकारा पुरुष जिन्हें आपने बूढ़े माँ-बाप का भी कोई ख्याल नही था. लाज है ऐसे लोगों पर जिन्हें अपनो से भी कोई लगाव नही.
जरुरत है की हम अपने दायित्व को समझे | बुरे-भले का बोध करें | अपनों को समझे | ओर 'अपनो' की कोई सीमा नही होती, परिवार, देश, विश्व सब अपने है. सामान करना सीखे | केवल व्यावसायिक शिक्षा को ही महत्व न देके, मानवीय शिक्षा को समझे | तभी हम एक शशक्त, अतुल्य, विकसित सांस्कृतिक भारत का निर्माण कर पाएंगे | नही तो बस ये एक सपना ही रह जायेगा.
"जहां डाल डाल पर, सोने की चिडिय़ां करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा । जहां सत्य अहिंसा और धर्म का, पग-पग लगता डेरा, वो भारत देश है मेरा।"
हमने बचपन से जिस प्रतिज्ञा को सीखा है, क्यों उसको अमल में नही ला रहे |
"भारत मेरा देश है।
सब भारतवासी मेरे भाई-बहन हैँ।
मैँ अपने देश से प्रेम करता हूँ।
इसकी समृद्ध एवं विविध संस्कृति पर मुझे गर्व है।
मैँ सदा इसका सुयोग्य अधिकारी बनने का प्रयत्न करता रहूगाँ।
मैँ अपने माता-पिता, शिक्षकोँ एवं गुरुजनोँ का सम्मान करुगाँ और प्रत्येक के साथ विनीत रहूगाँ।
मैँ अपने देश और देशवासियोँ के प्रति सत्यनिष्ठा की प्रतिज्ञा करता हूँ।
इनके कल्याण एवं समृद्धि मेँ ही मेरा सुख निहित है।" (साभार: विकिपडिया.ओआरजी)
हमारी प्रतिज्ञा का एक-एक शब्द हमे मनुष्यता के मायने सीखता है . पर दुःख! दुःख इस बात का की इसको कभी समझने की चेष्टा ही नही की. उन कापुरुषों ने भी इस को पढ़ा होगा, सीखा होगा पर अमल में नही लाये , उसका परिणाम हमारे सामने है. उन जैसे दूषित सोच वाले लोग किसी कंस या रावन से कम नहीं है. कंस या रावन पाशविकता की वो चरम सीमा है, जन्हा पर उनको प्रायश्चित करने का समय नही दिया सकता | फिर क्यों न तुम उनका अंत कर दो, जितना जल्दी हो सके |
हालाँकि हम उसको नही बचा सके | पर उसकी जिजीविषा (जीने की लालसा) ने हमे बहुत कुछ सिखाया है | वो इसलिए जीना चाहती थी की, अपने इस दुःख को साथ में रखते हुए भी अपने परिवार की सेवा कर सके. उसको पल पोस कर जिसने बड़ा किया है, उन्हें संभल सके. उसकी ये सोच हमे अपने परिवार, सामाज, देश के प्रति दायित्व का अहसास करवाती है. दूसरी और वो नाकारा पुरुष जिन्हें आपने बूढ़े माँ-बाप का भी कोई ख्याल नही था. लाज है ऐसे लोगों पर जिन्हें अपनो से भी कोई लगाव नही.
जरुरत है की हम अपने दायित्व को समझे | बुरे-भले का बोध करें | अपनों को समझे | ओर 'अपनो' की कोई सीमा नही होती, परिवार, देश, विश्व सब अपने है. सामान करना सीखे | केवल व्यावसायिक शिक्षा को ही महत्व न देके, मानवीय शिक्षा को समझे | तभी हम एक शशक्त, अतुल्य, विकसित सांस्कृतिक भारत का निर्माण कर पाएंगे | नही तो बस ये एक सपना ही रह जायेगा.
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